Sunday, August 05, 2007

बिखरती लेखनी

शायद Blogging करने का ख़्याल दिल मे आये हुए 1 वर्ष से कुछ ही अधिक हुआ होगा पर इतना अच्छा तोहफा इस friendship day पर मिलने की स्वप्निल उम्मीद कभी नहीं की थी.हिंदी मे Blog करना,सोचने मॆं ही इतना अच्छा ख़्याल था की आज जब खुद अपनी उँगलियों के स्पर्श से देवनागरी के शब्द उभरते देख रहा हूँ तो लग रहा है कि कहीं नयी कोंपल खिल रही है . शायद उत्साह की ,या शायद उन बीते लम्हों कि जब हिंदी मुझसे इतनी अभिन्न थी जितनी की आज अंगरेजी शायद ये ही वो प्रेरणा हो जिसे महसूस तो कर पा रहा था पर समझ नहीं पा रहा था.समय सारी इन्द्रियों को कमजोर कर देता है


सच बोलूँ तो आज लिखने कुछ और ही आया था पर प्रतीत होता है कि अब अवसर की चाह कुछ और ही है.पिछले कुछ समय से व्यथित तो नहीं पर सोच मॆं अवश्य हूँ.सोच इस बात की की आज इस नए युग की भोर मॆं हम कहीं कुछ अधिक रफ़्तार तो नहीं थामे हैं.कहीं ऐसा तो नहीं कि भौतिकतावाद हम पर हावी हो गया है.या कहीँ ऐसा तो नहीं की शायद कालचक्र फिर वहीं घूम के गया है जहाँ 100 साल पहले था.आज से 100 साल पहले के भारत मॆं भी कथाचित यही होड़ लगी थी कि किस तरह पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण किया जाये .लोग अपनी संतानों को दूर विदेश भेजते थे, ये सोच के की देश मॆं तो कुछ है नहीं करने के लिए,तो क्यों ना किसी और देश की ही सेवा की जाये.इस कारण जाने कितने ही सस्ते बौद्धिक मजदूर विदेश निर्यात किये गए.हमारे इन सस्ते मजदूरों की क्षमताओं का पूर्ण रुप से दोहन किया पश्चिम ने और कहीँ आगे निकल गया औधोगिक क्रांती के जरिये.और हम 90 साल तक झोली फैलाये खडे रहे कि कभी अमरीका नहीं तो कभी यूरोप कुछ दान दे तो हम बाक़ी के बच्चो को पढाये .अब भारत का स्वरूप बदल रहा है तो इसलिये नहीं कि हमारे बुद्धिजीवी वापिस गए हैं.आज भी वो दुसरे देशों मॆं हैं और वहाँ की सेवा कर रहे है.मुझे इनकार नहीं इस सिद्धांत से कि हर किसी को अपने भविष्य को चुनने का हक है.मुझे इनकार है बस इस अवधारणा से कि हमारा भविष्य देश के भविष्य से प्रथक हो,अलग हो


अब बात चली ही तो उन लोगो कि भी बात कर लेते है तो हिंदी को अपनी मातृभाषा कहने मॆं कतराते तो नहीं है पर उसमे 4 पंक्तियां भी सही व्याकरण से नहीं लिख सकते.हिंदी आज भी हमारी राष्ट्रभाषा का दर्जा अगर नहीं पा सकी है तो सिर्फ इन जैसे लोगों के कारण जो इसे सारी जिंदगी निम्न तबके की भाषा या UP के भैया की भाषा समझते हैं.उन्हें अपने बच्चो को अंग्रेजी मॆं hello बोलते देखना तो अच्छा लगता है पर हाथ जोड़ कर नमस्ते बोलना नही सुहाता .मै संस्कारों कि बात नहीं करता.संस्कार हर किसी कि खुद के होते है.मॆं सिर्फ आचार की बात कर रहा हूँ.न्यूनतम आचार जो की हम भारतवासी होने के कारण गर्व से धारण कर सकते हैं.मातृभाषा का मतलब सिर्फ माता कि भाषा होना ही नहीं होता.इसका मतलब होता है वो भाषा,वो वचन जो आपके दिल मॆं हो.ऐसी भाषा जिसे आप खुद के दिल के इतने करीब महसूस करें जितना अपनी माँ को करते हैं


मै कदापि नहीं चाहता कि मेरी लेखनी किसी को भी प्रेरित करे या उकसाये.मकसद सिर्फ इतना है कि जो पीर मैं महसूस करता हूँ अपनी भाषा के निरादर को लेके,उसके मूल को समझा जा सके

मेरा मकसद ये नहीं कि क्रांती हो यलगार हो,
मेरा मकसद ये नहीं कि नर मुंड की बौछार हो,
नहीं चाहता हूँ की मेरे धर्मं का कोई अनुसार करे,
नहीं माँगता कि मेरी लेखनी का प्रसार करे,
चाहता हूँ कि हर दिल के अन्दर गूँज उतनी चाहिऐ
मेरे दिल की बात तेरे दिल तक पहुँचनी चाहिऐ।।
मेरे दिल कि बात तेरे दिल तक पहुँचनी चाहिऐ।।

- मनु

1 comment:

  1. Frankly speaking..should not have gone through this blog..already started feeling guilty..as to some degree i could envisage myself in same shoes. Atleast iam not pretender..though shameful but honestly i haven't written a full page in hindi after my 10th..but don't know why i feel.. blame is not entirely mine.??

    PS: replying in hindi support was missing :)

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