कहते हैं सब सर्वशक्तिमान अन्तर्यामी भगवान् हो तुम,
हर कण में, हर क्षण में, हर ह्रदय मैं विद्यमान हो तुम,
निवासित हो गर सृष्टि की हर एक रचना में,
फिर क्यूँ हमारे आत्मबल के क्षय से अनजान हो तुम ...
अश्रु - धारा की जगह रक्त झरता है हर कोर से,
पाप-छल का साम्राज्य है पुण्य - रुपी आकाश पे,
ये पावन नदियाँ अब जल नहीं कपट बहाया करती हैं,
और किरणें भी प्रकाश नहीं गहनतम तम बिखराया करती हैं,
नहीं कर सकते प्रदान नवालोक , कहलाते क्यूँ महान हो तुम ...
निवासित हो गर ...........
दिक्पाल दिशाओं के थर्राते हैं पाप के अंतर्नाद से,
रो उठते हैं पाषाण भी मानव ह्रदय के विषाद से,
छलनी करके रख देते हैं, अपनों के ही प्रपंच बाण,
असत्य के हाथों मैं रहती न्याय की सर्वोच्च कृपान,
गर नहीं सत्य के पाल, कहलाते क्यूँ सत्यवान हो तुम,
निवासित हो गर ...........
परीक्षा ना लो सब्र की हमारी, ' मनु ' से पाया है हमने धीर,
है संबल इतना कि सह जाएँ , हर विपदा के तीश्नतम तीर,
ला सकते हैं भूडोल, अपनी एक हुंकार से,
भेद सकते हैं पर्वत का सीना अपनी सत्य कटार से
मत भूलो रह चुके हो, इसी कुल कि संतान तुम,
निवासित हो गर ...........
(और क्रान्ति का जन्म हुआ )
~ मनु
हर कण में, हर क्षण में, हर ह्रदय मैं विद्यमान हो तुम,
निवासित हो गर सृष्टि की हर एक रचना में,
फिर क्यूँ हमारे आत्मबल के क्षय से अनजान हो तुम ...
अश्रु - धारा की जगह रक्त झरता है हर कोर से,
पाप-छल का साम्राज्य है पुण्य - रुपी आकाश पे,
ये पावन नदियाँ अब जल नहीं कपट बहाया करती हैं,
और किरणें भी प्रकाश नहीं गहनतम तम बिखराया करती हैं,
नहीं कर सकते प्रदान नवालोक , कहलाते क्यूँ महान हो तुम ...
निवासित हो गर ...........
दिक्पाल दिशाओं के थर्राते हैं पाप के अंतर्नाद से,
रो उठते हैं पाषाण भी मानव ह्रदय के विषाद से,
छलनी करके रख देते हैं, अपनों के ही प्रपंच बाण,
असत्य के हाथों मैं रहती न्याय की सर्वोच्च कृपान,
गर नहीं सत्य के पाल, कहलाते क्यूँ सत्यवान हो तुम,
निवासित हो गर ...........
परीक्षा ना लो सब्र की हमारी, ' मनु ' से पाया है हमने धीर,
है संबल इतना कि सह जाएँ , हर विपदा के तीश्नतम तीर,
ला सकते हैं भूडोल, अपनी एक हुंकार से,
भेद सकते हैं पर्वत का सीना अपनी सत्य कटार से
मत भूलो रह चुके हो, इसी कुल कि संतान तुम,
निवासित हो गर ...........
(और क्रान्ति का जन्म हुआ )
~ मनु