चाय!
मैंने चाय की तासीर को बदलते देखा है।
ग़ुस्से से बनायी गयी चाय।
प्यार से बनायी गयी चाय से अलग होती है।
आँच का फ़र्क होता है।
बाहर बाल्कनी में पैर रेलिंग के ऊपर रख के पी गयी चाय,
अंदर AC कमरे में सोफ़े पर क़रीने से बैठ के पी गयी चाय से अलग होती है।
ताप का फ़र्क़ होता है।
अलग होती है, चुस्की लेके, बिस्किट डुबो के पी हुई चाय,
जिसमें कब बातें घुल जाती हैं,
और कब बिस्किट,
पता ही नहीं चलता।
शायद जज़्बात का फ़र्क़ होता है।
और फ़र्क बता देती है चाय
Litmus Paper की तरह।
क्षारीय और अम्लीय तबीयत में।
क्यूँकि चाय में सिर्फ़ हाथ और साथ का फ़र्क़ होता है।
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